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प्रेम और सिनेमा: कहानी पूरी फ़िल्मी है!

Written By Preeti Singh Chauhan, Bollywood Story

बात फिल्मों की हो और "प्यार" का ज़िक्र न आए ऐसा तो हो नहीं सकता। और फिर हम कहते हैं की कहाँ यार ऐसा तो केवल फिल्मों में होता है "रियल लाइफ" में नहीं। हाँ, कुछ सच तो है इसमें। ये जानत हुए की फ़िल्में सच नहीं , ये जानते हुए कि फिल्मों में दिखाए जाने वाले घटनाक्रम काल्पनिक होते हैं, हमारा मन बार-बार उन्हें देखने को करता है। सच तो ये है की फ़िल्में हमें ख़ुशी देती हैं, उम्मीद देती हैं। उनमें दिखाए जाने वाले झूठ हमें अच्छे लगते हैं क्योंकि कहीं न कहीं हम चाहते हैं की वो सच हो जाएं। कहीं न कहीं हमारा मन चाहता है कि दुनिया उतनी ही सुखद हो जाए। हिंदी सिनेमा की शुरुआत से लेके आज तक जबकि ये सौ वर्ष का हो गया है, इक्का दुक्का फ़िल्में ही ऐसी हैं जिनमे प्रेम कहानी के लिए जगह नहीं थी।

अब हममें से कुछ हैं जो ये तर्क रखना चाहेंगे कि फ़िल्में हमे गुमराह करती हैं, सपनों की दुनिया में ले जाती हैं जिसका वास्तविक्ता से कोई सम्बन्ध नहीं होता। कुछ फ़िल्में तो युवाओं को बरगलाने का भी काम करती हैं, जिनके कारण हम वास्तविक जीवन की कठोरता को स्वीकार ही नहीं पाते। 'कुछ-कुछ होता है' में जब राहुल अंजलि को इसलिए भूल जाता है की वो आधुनिक रुझानों के अनुसार सुन्दर और आकर्षक नहीं दिखती तो हर वो लड़की जो "आधुनिक रुझानों " के अनुसार सुन्दर नहीं दिखती, सोच में पड़ जाती है कि "इस रूप रंग के साथ क्या मुझे मेरे मन का जीवनसाथी मिलेगा? " कभी कभी तो इस सोच के तहत उससे कई भारी गलतियां भी हो जाती हैं जो कभी सुधर नहीं पाती। कहाँ गया वो आत्मविश्वास कि " मैं जो चाहे कर सकती हूँ और वही करुँगी जो मेरा दिल गवाही करेगा "?

फिल्मों के ही कारण हमे लगता रहता है कि परियों की कहानी जैसा कुछ हमारे जीवन में भी हो जाता तो कितना अच्छा होता। सब कुछ वक़्त , हालात और किस्मत पर छोड़ हम आराम से जीवन बिताना चाहते हैं, जैसे कोई फिल्म ही हो पर सच तो ये है कि अपनी ज़िन्दगी ख़ूबसूरत बनाने के लिए हमे खुद ही परिश्रम करना होता है। चाहे बात पैसे कमाके जीवन वहन करने की हो या मनचाहे जीवनसाथी के साथ सुखद जीवन व्यतीत करने की। असल में हम खुद ही अपने जीवन को बनाते या बिगाड़ते हैं। मनचाहा जीवन साथी पाने के बाद सब कुछ स्वप्न जैसा होगा इसकी ज़मानत कौन देगा ? स्वयं हम ! स्वयं हम ही तो समझदारी और आपसी सामंजस्य से जीवन को सुन्दर बना सकते हैं। और यही सिखाती हैं वो फ़िल्में जिन्हे महज़ इतिहास रचने या ब्लॉकबस्टर बनने के लिए नहीं बनाया जाता बल्कि बनाया जाता है एक कहानी कहने के लिए ...


1. सोचा न था (2005)


सोचा न था

जवानी के दौर में अक्सर हमसे स्वयं को समझने में भूल हो जाती है। आसक्ति और प्रेम के बीच का फ़र्क समझते-समझते कई बार देर भी हो जाती है। किसी को बचपन से पसंद करना, या सिर्फ किसी की सूरत अच्छी लगना या फिर पहली बार किसी के प्रति आकर्षित हो जाने को मन ही मन हम प्यार का नाम दे देते हैं। और फिर शुरू होता है द्वन्द - ह्रदय से मस्तिष्क का, व्यक्ति से समाज का...

अपनी ही पसंद की लड़की कैरेन को छोड़, जब वीरेन (अभय देओल ) अदिति (आयशा टाकिया) से भाग के शादी करता है तो लोग हैरान रह जाते हैं। अदिति वही तो है जिससे वो शादी के उद्देश्य से मिलने गया था और लौट कर रिश्ते से मन कर दिया था और बाद में पता चला कि वो कॉलेज की किसी कैरेन नाम की लड़की को चाहता है। असल में वीरेन स्वयं को ही समझने में भूल कर बैठता है। अदिति में उसे एक दोस्त मिलता है, एक साथी जिसे वो दिल की हर बात कह सके। जिससे झूठ कहने के ज़रूरत ही न पड़े। उससे मिलने से पहले वीरेन को ये पता ही नहीं चलता है की वो क्या चाहता है। अदिति की मासूमियत, उसकी साफ़गोई, उसकी हिम्मत, वीरेन के जीवन के मायने ही बदल देती हैं।


2. मिली (1975 )


मिली

क्या सच्चा प्यार और मासूमियत एक व्यक्ति में इस हद तक जान फूँक सकते हैं की वह न सिर्फ अपने सारे दर्द भुला कर जीने लगे बल्कि मृत्यु से भी लड़ने को तैयार हो जाए? ऐसा ही तो था मिली का प्यार।।... रिश्तों में चोट खाया शेखर (अमिताभ बच्चन) जब मिली (जया बहादुरी) से मिला तो बेहद कड़वा और आत्म-केंद्रित व्यक्ति था। मिली सारा दिन छोटे बच्चों के साथ छत पर खेलती, शोर मचाती है, जो सामने वाले फ्लैट में रहने वाले शेखर को नागवार गुज़रता है। वक़्त के साथ मिली की शरारतें उसे अच्छी लगने लगती हैं। मिली अक्सर शेखऱ के टेलिस्कोप से तारे देखने आती है। मिली की मासूमियत शिकार को खींचती जाती है और धीरे-धीरे वह उसे अपना मानने लगता है। अपने सारे दुःख भुला कर वह फिर से जी उठता है। पर ये क्या ? मिली को एक जानलेवा बीमारी है। वह फिर टूटने लगता है पर मिली के प्रेम की शक्ति उसे बचाए रखती है। मिली के पिता (अशोक कुमार ) के कहने पर वह मिली से दूरियां बनाने की कोशिश करता है पर ऐसा कर नहीं पाता। आने वाले कल की परवाह किये बगैर वो मिली से शादी करता है और इस उम्मीद में की वो ठीक हो जाएगी उसे इलाज कराने विदेश लेकर चला जाता है।


3. साथ-साथ (1982 )


Saath-Saath

क्या प्यार सारी उम्र एक-दूसरे की ओर देखने का नाम है? या फिर एक ही दिशा में देख साथ-साथ जीवनयापन करने का ? एक दूसरे की खूबसूरती को निहार कब तक प्रेमी गुज़ारा कर सकते हैं ? वास्तव में आवश्यकता है एक-दूसरे को समझके एक 'टीम' की तरह एक ध्येय के लिए काम करने की। प्रेमी अगर गलत रस्ते पर निकल पड़ा है तो उसे सही राह दिखाने की...

गीता (दीप्ति नवल) अपने समृद्ध परिवार को छोड़ कर गरीब मगर स्वाभिमानी अविनाश (फ़ारूक़ शेख़) से शादी करना चाहती है। अविनाश के समाजवादी विचार और नैतिक मूल्य उसे इतना प्रभावित करते हैं की वो अपने आप सब कुछ त्याग उसके पास पहुँच जाती है, उसकी रोज़मर्रा की जद्दोजहद और समाज सुधार की ज़िद का हिस्सा बनने। गीता, अविनाश के एक कमरे के घर को ' हसीन ' कह उसमे गुज़ारा करती है। पर धीरे-धीरे अविनाश को अपनी गरीबी पर शर्म आने लगती है। गीता दिन-रात मेहनत करती है ताकि अविनाश की पढ़ाई भी न छूटे और घर भी चलता रहे। गीता को तकलीफ़ में देख के अविनाश ज़्यादा पैसे कमाने के गलत तरीके अपनाने लगता है : रिश्वत देता है , यहाँ तक कि "पॉर्नोग्राफी " की किताबें छाप कर उनसे पैसे कमाने का विचार करता है। गीता के सब्र का बाँध टूट जाता है और वो घर छोड़ने का फ़ैसला करती है। जाते-जाते वह उसे याद दिलाना चाहती है की वो उसके पास आई ही क्यों थी।..."क्यों ज़िन्दगी की राह में मजबूर हो गए, इतने हुए करीब के हम दूर हो गए.... " अविनाश को अपनी गलती का एेहसास होता है और वो पहले की तरह एक अखबार के लिए काम करने का फ़ैसला करता है और गीता को रोक लेता है।


4. जो जीता वही सिकंदर (1992 )


Jo-jeeta-Wahi-Sikandar

जब बचपन का साथी जवानी में किसी दूसरे के प्यार में पड़के साथ छोड़ दे; वो भी ऐसे किसी के लिए जो सिर्फ़ पैसों और दिखावे का भूखा हो, और तो और वो दोस्ती का मतलब भी भूल जाए , तो आप क्या करेंगे ? बदला लेंगे या अपना रास्ता ही बदल लेंगे ? पर अंजलि ने कुछ और ही किया ...बचपन से लेके आज तक अंजलि (आयशा जुल्का ) हर कदम पर संजू (आमिर ख़ान ) के साथ है। कभी उसे मुसीबतों से बचाने के लिए झूठ बोलती है तो कभी उसकी ख़ुशी के लिए अपना ही दिल दुखाती है। संजू निहायत लापरवाह और ग़ैरज़िम्मेदार है। आए दिन किसी न किसी मुसीबत में फँस जाता है। अंजलि, पिता के मना करने के बाद भी उसके साथ ही रहती है और हर बार उसे मुसीबतों से बचाती है। पर इस बार तो हद हो हो गई। संजू को दुसरे कॉलेज की एक अमीर लड़की (पूजा बेदी ) से प्यार हो गया है और वो उस लड़की से झूठ भी बोल देता है की वो भी अमीर है. अंजलि बहुत दुखी है पर फिर भी संजू का झूठ छिपाने में उसका साथ देती है। वह उसे समझाती है कि वह लड़की सिर्फ पैसे के लिए उसके साथ आई है पर वो उसकी एक नहीं सुनता। सच खुल जाता है और वो लड़की संजू का अपमान करके उसे छोड़े देती है। अंजलि अब भी संजू के साथ है। भाई के घायल होने पर संजू उसकी साइकिल रेस में हिस्सा लेने की ठानता है। अंजलि उसकी तैयारी में जी तोड़ मदद करती है। हर वक़्त उसके साथ रहके उसका हौसला बढ़ाती है। अब कहीं जाके संजू को अंजलि के प्रेम का एहसास होता है और अंत में वो भी उसे प्रेम करने लगता है।


5. जाने तू या जाने ना (2008)


Jane-tu-ya-jane-na

प्रेम केवल सुख नहीं देता। सच्चा प्रेम देता है शक्ति- साड़ी दुनिया से लड़ने की, खुद को बदल डालने की, प्रियतम को दुख पहुंचाने वाले को मिटा देने की, और प्यार के लिए कुछ भी कर गुज़रने की। जब अदिति (जेनेलिआ डिसूज़ा ) का होने वाला पति सुशांत उस पर हाथ उठाता है तो जय (इमरान ख़ान ) के क्रोध की सीमा नहीं रहती। जय सुशांत के घर जाकर उसे पीटता है। वो जय जिसकी माँ ने उसे अहिंसा का पाठ पढ़ाते हुए बड़ा किया था। वो जय जिसने न आज तक किसी से लड़ाई की, न किसी से झगड़ा मोल लिया। बात तो अदिति की थी न, वो कैसे बर्दाश्त करता ? वो उसकी बचपन की साथी है। असल में हमेशा साथ रहते-रहते दोनों समझ नहीं पाए की एक दूसरे को कितना चाहते हैं। भावनाएं तो तब फट पड़ी जब दोनों को ही कोई और मिला।


6. दिल से (1998)


Dil-Se

क्या होता है जब एक देश प्रेमी पत्रकार (शाहरुख़ ख़ान ) को प्रेम हो जाता है एक अत्यधिक मासूम और सुन्दर दिखने वाली एक आतंकवादी लड़की मेघना (मनीषा कोइराला) से ? ज़रूरी नहीं की हर कहानी का अंत सुखद हो ! कुछ कहानियां ये भी सिखाती हैं की अगर प्यार गलत रास्ते पर है तो उसे वापस ले आना, और अगर ये न हो पाए तो दुनिया में कुछ अनर्थ होने से पहले उसे ख़त्म कर देना, ही सही है। खासकर तब, जब हज़ारों जानें जाने का ख़तरा पैदा हो जाए।


7. वीर ज़ारा (2004 )


Veer-Zara

क्या कोई प्यार के लिए सालों जेल में ख़ामोश बंद रह सकता है ? क्या कोई अपने मृत प्रेमी का सपना पूरा करने के लिए अपना देश छोड़ उसके देश में सारा जीवन बिता सकता है ? सरहद पार प्रेम का ऐसा चित्रण शायद ही किसी कहानी में किया गया है प्रेम जो हर सरहद से परे है। ... वीर (शाहरुख़ खान ) और ज़ारा (प्रीती ज़िंटा ) एक दूसरे से प्रेम करते हैं। पर इस प्यार के बीच कई दीवारें हैं। मज़हब की दीवार, सरहद की दीवार, और अब मौत की दीवार. पर ये क्या? वीर अभी मारा नहीं है, वो तो लाहौर की एक जेल में २२ सालों से बंद है। ज़रा तो समझती थी कि वीर अल्लाह को प्यारे हो गए इसलिए वो भारत आ गई थी, उसके गाँव में स्कूल चलाने का वीर का सपना पूरा करने । वीर भी तो समझता था कि ज़रा की शादी हो गई होगी, बच्चे हो गए होंगे। इसीलिए तो उसने इतने साल खामोश रहना मंज़ूर किया था। "ये लोग कौन हैं ? एक वीर है जो ज़ारा की खातिर बरसों से खामोश है। एक ज़ारा है जिसने अपनी ज़िन्दगी वीर के ख्वाब के नाम कर दी है। ये खुदा के भेस में इंसान हैं या इंसान के भेस में खुदा ... "?


8 . हम तुम (2004)


Hum-Tum

दुनिया में कुछ भी स्थाई नहीं है। समय सब कुछ बदल देता है - इंसान को भी और रिश्तों को भी... ज़रूरी नहीं की जो आज अच्छा नहीं है वो कल भी खराब लगेगा। आज जो पराया है वो कल सबसे अधिक अपना भी हो सकता है। ये कहानी देख कर सही-गलत, पसंद-नापसंद , अनुकूल-प्रतिकूल के अर्थ ही बदल जाते हैं। रिया (रानी मुख़र्जी ) करण (सैफ अली खान ) से जब पहले बार प्लेन में मिली थी तो वो उसे बिलकुल अच्छा नहीं लगा था। बेशरम, लापरवाह, बद्तमीज़, और मसखरा। ऐसा ही तो है वो। करण को भी रिया कुछ ख़ास पसंद नहीं। फिर क्या होता है की वो बार-बार मिलते हैं बिछड़ते हैं और फिर एक हो जाते हैं ? वक़्त कैसे दो अलग-अलग इंसानों को एक दूसरे का पूरक बना देता है। कैसे रिया की किसी और से शादी , शहर बदलना , करण का भी दूर चले जाना, ये सब भी उन्हें अन्ततः मिलने से रोक नहीं पाते.


9. छोटी सी बात (1976 )


छोटी सी बात

बात छोटी सी है या शायद उतनी छोटी नहीं जितनी लगती है - और वो ये कि आत्मसंशय से भरे हुए , डरपोक, बुद्धू और बेवक़ूफ़ दिखने वाले व्यक्ति से प्रेम किया जा सकता है ? क्यों नहीं ? देखिये भावुक न हों ! मामला कुछ दिनों का नहीं पूरे जीवन का है। हर कोई चाहता है की उसका जीवनसाथी न सिर्फ दिखने में ख़ूबसूरत और दिलवाला हो बल्कि आत्मविश्वास से भरपूर एक चतुर और साहसी नवयुवक या नवयुवती हो। इसे ऐसे भी देखा जा सकता है की आए दिन सच्चे नौजवान अपना सीधा-सादा दिल लिए भटकते हैं पर उन पर किसी की नज़र नहीं पड़ती। उनका मन साफ़ है लेकिन पहनावा मैला, आचरण बोलता है पर ज़बान खामोश। ऐसे में क्या जुगत हो की किसी अरुण को उसकी प्रभा मिल जाए.... तो बात है अरुण (अमोल पालेकर ) की, प्रभा (विद्या सिन्हा ) के प्रति उसके प्रेम की और उसके दब्बू स्वभाव के कारण उस प्रेम को व्यक्त न कर पाने की। अरुण का भोलापन, उसकी सहिष्णुता , उसके उज्जवल भविष्य के आड़े आ रहे हैं। हर कोई उसे मूर्ख बना रहा है और उसके सीधे-सादे व्यवहार का अनुचित लाभ उठा रहा है। ऐसे में उसे ज़रूरत है एक "लव गुरु " की जो न सिर्फ उसे प्रेम के गुर सिखाए बल्कि जीवन कौशल का भी ज्ञान दे। कुर्नेल (अशोक कुमार ) में उसे अपना लव गुरु मिल गया है। अब वो प्रभा को प्रभावित कर लेगा और सुखद जीवन की राह लेगा।


10. बॉम्बे (1995 )


Bombay

जाति और धर्म सच कहूं तो मुझे लगता है की कुछ हैं ही नहीं। भला क्या अर्थ, क्या आधार है इनका ? कुछ इतिहास, कुछ किताबें , कुछ ग्रन्थ जो न जाने किसने लिखे और कब ? हमारे सामने आज जो है वो सच है भी या नहीं ? कोई प्रमाण है ? और मान लें की सच है भी तो कौन अल्लाह , कौन भगवन अपने भक्तों को आपस में लड़ते हुए देखना चाहते हैं ? हम सब इंसान हैं और यही हमारी जाति होनी चाहिए और मानवता ही हमारा धर्म। फिल्म ने कहा , मैं भी कहूँगी - " अपनी ज़मीन, अपने गगन दुश्मन बने क्यों अपने ही हम ? मज़हब का छोड़ो वतन का सोचो, हिन्दुस्तानी हैं पहले हम।" बॉम्बे दंगों के आस-पास बानी शेखर और शायला बानो की ये प्रेम कहानी हमे जीना सिखाती है। इंसान की इंसान के प्रति सहिष्णुता सिखाती है। अगर कोई हमपे मज़हब थोपे तो उसकी खिल्ली उड़ाते हुए धर्मों का मिलान करना सिखाती है। प्रेम केवल एक दूसरे के हो जाने का नाम नहीं है। प्रेम एक दूसरे को सम्पूर्णतया अपनाने का नाम है।


11. बर्फ़ी (2013)


Barfi

क्या वे दो व्यक्ति जिन्हे समाज ने विकलांग और असामान्य का दर्जा दे दिया है, असल में दूसरों को सही ढंग से जीना सिखा सकते हैं ? वे जो ये जानते हैं की उन्हें हर हाल में साथ रहना है और यही उनके लिए प्यार है.... आमतौर पर किसी को देखकर उसे पसंद करने लगना और मन ही मन खुद को दीवाना बना लेना ही प्यार समझा जाता है। पर सही मायने में हर सुख-दुःख में साथ रहना, हर कमी के बावजूद अपने साथी को अपना समझना, उसे सुधारने की कोशिश करना, समय के साथ साथ-साथ विकसित होना ही प्यार है। यूँ नहीं की, हमारी आपस में बन नहीं रही, हमारे विचार मेल नहीं खाते ये हमारे बीच प्यार के लिए अब जगह नहीं बची , या फिर हम "कम्पेटिबल" नहीं हैं जैसी बातों के लिए जगह होनी चाहिए। किसी विद्वान ने कहा है कि आप रह चलते किसी भी आदमी से शादी करके खुश रह सकते हैं , बस इस प्रक्रिया में अपने आप को न भूलें, न बदलें।

जन्म से गूंगे-बेहरे मर्फी (रणबीर कपूर ) और ऑटिस्टिक झिलमिल (प्रियंका चोपड़ा ) का प्रेम हमे सिर्फ और सिर्फ प्रेम करना सिखाता है। प्रेम में पूर्णता या अनुकूलता ढुड़ना नहीं। प्यार नाकाम तब होने लगता है जब हम उसमे 'परफैक्शन' ढूंढ़ने लगते हैं और स्वयं ही सब कुछ उलझा लेते हैं। हम सोचते हैं कि हमारे विचार मेल खाने चाहिए, हमारी पसंद-नापसंद एक होनी चाहिए, वगैरह-वगैरह। हमारे किरदारों से सीखें तो हर हाल में साथ रहने और मिलकर बढ़ने को ही प्यार समझा जा सकता है। सुखद जीवन जीने का सीधा और सरल उपाय। तो इतनी चर्चा के बाद सत्य ये निकल के आया की प्रेम कहानियां हमे जीवन जीने की सच्ची राह दिखाती हैं। प्रेम कहानियां जो संभवतः स्वयं सच्ची नहीं हैं पर सुखद हैं, जो हमे विश्वास दिलाती हैं की दुनिया सुन्दर है और अगर नहीं है तो बनाई जा सकती है, जो ये लालसा जगती हैं की काश हम भी इनका हिस्सा होते तो कितना अच्छा होता। कितनी अजीब बात है न , एक काल्पनिक चित्रण जो वास्तव में है ही नहीं व्यक्ति को ये बोध कराता है।

पर भाई ! बात तो ये है की या हमारे हाथों में ही तो है की हमारी कहानी के दृश्य कैसे दिखेंगे। हमारी कहानी के 'हीरो/हीरोइन' हम स्वयं ही तो हैं। बस आवश्यकता है तो थोड़ी सी मेहनत, थोड़े से त्याग , और थोड़ी सी समझदारी की। ऑफिस के जॉब की तरह प्रेम भी हर दिन, हर क्षण परिश्रम मांगता है। तो आइये हम स्वयं को एक वचन दें कि हम प्रेम की अनुकूलता की खोज में न रहकर उसे स्वयं निर्माणित करने का प्रयास करेंगे। अगर हम इस परिश्रम की भट्टी में स्वयं को झोंकने को तैयार हैं तो एक दिन आएगा जब हमसे समय स्वयं बोल उठेगा की "भैया, कहानी पूरी फ़िल्मी है ।"

नोट: प्रस्तुत लेख दिल्ली यूनिवर्सिटी के हिन्दू कॉलेज की पत्रिका "हस्ताक्षर" के 2014 में प्रकाशित अंक से लिया गया है। सम्पादक महोदया डॉ. रचना सिंह जी को रॉकीइंग का आभार ।

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