ऑफिस के कुछ महत्वपूर्ण काम से मुझे एक दिन के लिए उत्तराखंड के अल्मोड़ा जिले में बसे पन्याली गांव में जाकर रहना था। मैंने अपने एक पुराने मित्र (जो कुछ समय पहले तक उसी गांव में रहते थे) से उस जगह के बारे में कुछ जानकारी ली। मुझे स्पष्ट रूप से बता दिया गया कि मुझे वहां रुकने के लिए जगह मिलना मुश्किल है। वहाँ के लोग चोर लूटेरों के डर से किसी अनजान व्यक्ति को घर में नहीं रखते हैं।
"क्या मुझे कोई एक रात रुकने के लिए अपने घर में जगह देगा, कहीं मुझे बाहर तो नहीं सोना पड़ेगा, इतनी ठंड में मैं बाहर रात कैसे गुजारूँगा, कहीं कोई जंगली जानवर आ गया तो, या फिर किसी चोर लुटेरे ने मुझे पकड़ लिया तो" - इन्हीं सवालों के जवाब सोचते सोचते मैं अल्मोड़ा पहुंच गया।
गांव देखने में काफी सुंदर था। लेकिन शहर की चहल-पहल से विपरीत वहां चारो तरफ सुनसानी पसरी हुई थी। गर्मियों की चिलचिलाती धूप भरी दोपहर में जैसा सन्नाटा छाया रहता है, बिल्कुल वैसा ही माहौल था। 5:00 बजे तक अपना निपटा कर मैं अपने रुकने का ठिकाना ढूंढने लगा।
गांव में कोई 25-30 घर रहे होंगे। आठ घरों से मुझे निराशा हाथ लग चुकी थी । नवा घर गांव के प्रधान का था। मुझे पता नहीं क्यों विश्वास था कि प्रधान जी मेरी मदद जरूर करेंगे। लेकिन वह बोले, "मैं तुम्हें अपने घर पर नहीं रख सकता और मेरी समझ से तुम्हें कोई भी अपने घर रुकने की अनुमति नहीं देगा। लेकिन तुम चाहो तो एक बार कोशिश कर सकते हो।"
मैं मुंह लटका कर वहां से जाने लगा कि तभी पीछे से प्रधान जी की आवाज आई। सुनो अगर तुम्हें कहीं भी जगह ना मिले तो तुम भैरव सिंह के घर चले जाना। उसका घर गांव के आखिर में है। वह शायद तुम्हें रुकने की जगह दे सकता है। लेकिन संभाल के, वह थोड़ा सनकी सा है। गांव में किसी से भी उसकी बनती नहीं है। दो लोगों की टांगें तोड़ चुका है और एक को जिंदा मारने की कोशिश भी कर चुका है। तुम संभल कर रहना।
6:30 बज चुका था। सूरज की आखिरी किरण भी पृथ्वी के अंदर समाहित हो चुकी थी। प्रधान की बात सच साबित हुई। मुझे रात काटने का कोई ठिकाना नहीं मिला। मैं तेज तेज कदमों से भैरव सिंह के घर की तरफ बढ़ा।
भैरव सिंह के लिए मेरे मन में थोड़ा डर था और थोड़ा उसे जानने की उत्सुकता। लेकिन सबसे जरूरी था रात गुजारने के लिए जगह ढूंढना। उसके घर के बाहर आकर मैंने जोर जोर से आवाज लगाई, "कोई है कोई है"। लेकिन कोई बाहर नहीं आया। फिर मैं सीढ़ियों से ऊपर चढ़कर उस घर के दरवाजे तक पहुंचा।
दरवाजा खुला हुआ था। अंदर जांचने के लिए मैंने गर्दन घुमाई ही थी कि किसी ने मेरे कंधे पर हाथ रखा। "कौन हो तुम? चोरी करने आए हो यहां। तुम्हें तो अभी बताता हूं", भैरव सिंह ने गुस्से से भरकर कहा।
"नहीं नहीं मैं तो यहां काम से आया था। रात गुजारने के लिए ठिकाना ढूंढ रहा हूं। क्या आप मुझे एक रात के लिए अपने घर में जगह दे सकते हैं?"
भैरव सिंह ने ठीक है कह कर मुझे इजाजत दे दी। लेकिन पता नहीं क्यों मुझे अंदर से खुशी नहीं हो रही थी। इतनी मेहनत के बाद रात बिताने के लिए एक छत मिलने पर भी मेरा दिल खुश होने की इजाज़त नहीं दे रहा था। मेरे कानों में अभी भी प्रधान की कही बात गूंज रही थी।
उसके घर में दो कमरे थे। बाहर के कमरे में उसकी चारपाई, एक अंगेठी और रसोई के नाम पर एक लोहे की कढ़ाई, थाली और तीन चार प्लास्टिक के डिब्बे थे। हां, एक छोटी कटोरी भी थी जिसमें कुछ लाल गाड़ा पानी जैसा कुछ था। पानी या फिर खून।
मैंने जानने के लिए अपनी छोटी अंगुली कटोरी में डुबाई। उसका स्वाद बेहद कड़वा था जिससे किसी जंग लगे हुए लोहे की महक आ रही थी। वह यकीनन खून ही था।
"क्या यह किसी इंसान का खून है? हो ना हो भैरव सिंह ने किसी की जान ले ली है। या हो सकता है कि यह खून किसी जानवर का ही हो। जो भी हो, यह भैरव सिंह काफी असाधारण है। कैसे कटेगी यहां मेरी रात?" - मैं सोचने लगा।
अंदर वाला कमरा तुलनात्मक रूप से बाहर वाले से बड़ा था। परंतु उसमें केवल एक तख्त और तीन चार रजाई कंबल थे। दीवार में बनी हुई एक छोटी लकड़ी की अलमारी भी अपनी मौजूदगी दर्ज करा रही थी। बिस्तर में अपना बैग रखकर में उत्सुकता वश उस अलमारी को खोलने लगा।
तभी किसी के अंदर आने की आहट हुई। मैं झट से बिस्तर पर बैठ गया और भैरव सिंह को अपने पास आता हुआ देखने लगा।
"यह क्या! इसके हाथ में तो एक बड़ा सा पत्थर है। यह पत्थर अंदर क्यों ला रहा है? कहीं भैरो सिंह पत्थर से मुझ पर हमला तो नहीं कर देगा? नहीं नहीं यह ऐसा नहीं कर सकता।" - मेरे मन कुछ ऐसे ही ख्याल आ रहे थे।
वह पत्थर अलमारी के नीचे रख अलमारी खोलने लगा। उसने अलमारी से दो छोटे तलवारनुमा चाकू, एक बड़ी नुकीली खंजर और एक मोटी बड़ी चाकू बाहर निकाली। वह नीचे बैठ कर उनकी धार तेज करने लगा।
डर और ठंड के कारण मेरी रीड की हड्डी सिकुड़ रही थी। मेरे मन में काफी सारे सवाल थे। लेकिन भैरव सिंह की भावविहीन सी शक्ल देखकर मुझे कुछ भी पूछने की हिम्मत नहीं हो रही थी।
मैं हड़बड़ा कर नीचे की तरफ भागा और टॉयलेट ढूंढने लगा। घर के बगल में घर से आधी ऊंचाई वाला एक कमरा था, जिसका दरवाजा गायब था। वह भैरव सिंह का टॉयलेट ही था। लेकिन कोई इंसान ऐसे खुले में शौंच कैसे कर सकता है? वह मेरी समझ के परे था। भैरव सिंह अकेले रहता था। शायद इसीलिए उसके लिए यह आसान रहा होगा। लेकिन क्या उसे जंगली जानवरों का भी डर नहीं था?
लगभग 10 मिनट बाद मैं वापस ऊपर गया। भैरव सिंह चूल्हे के पास बैठ कर कढ़ाई में कुछ तल रहा था। उसके हाथ में रखी थाली में मुझे मांस के टुकड़े दिखे। उसने मुझे डांटते हुए पूछा, "तुम कच्चा मांस खाओगे या फिर पका हुआ?"
"मै म म म मैं मांस नहीं खाता", मैं हकलाते हुए बोला।
"मांस नहीं खाते! घास पूस खाते हो क्या? तब तो तुम्हें आज भूखा ही रहना पड़ेगा क्योंकि यहां इन मांस के टुकड़ों के अलावा ऐसा कुछ भी नहीं है जिसे तुम खा सको। इसलिए मांस खाना है तो खाओ वरना चुपचाप पानी पीकर सो जाओ" - वह झल्लाते हुए बोला।
उसकी गुस्से से भरी भारी आवाज से मैं भयभीत हो गया था। मैं हड़बड़ा कर अंदर कमरे की तरफ दौड़ा ही था कि मेरा पैर दरवाजे के पास तक पहुंची चूल्हे की लकड़ी पर पड़ा। लकड़ी के हिलने से तेल वाली कढ़ाई पलट कर चूल्हे में गिर गई। मांस के टुकड़े, जो कुछ समय पहले तक कढ़ाई में थे अब चूल्हे की राख में सने हुए थे। कढ़ाई का तेल भी सारा नीचे तैर रहा था।
भैरव सिंह गुस्से से आगबबूला होकर मेरी तरफ दौड़ा। मेरे पैर हिल भी नहीं पाए। शायद सुन्न पड़ गए थे। अपने शेर के पंजे समान हाथों से उसने मेरा गला पकड़ कर दीवार में चिपका दिया। उसकी लाल आंखों में मुझे अपनी मौत प्रत्यक्ष रुप से दिखाई दे रही थी।
"अगर तुम्हें नहीं खाना तो मत खाओ। मुझे तो एक निवाला चैन से खाने दो। समझे तुम!" इतना कहते ही वह मेरा गला छोड़ चूल्हे के पास पड़े मांस के टुकड़े थाली में उठाकर रखने लगा।
मेरे बेजान शरीर में न जाने कहां से दोबारा ताकत आई और मैं दौड़ता हुआ अंदर कमरे के बिस्तर में घुस गया।
"ये भैरव सिंह तो मुझे जिंदा नहीं छोड़ेगा। आज तो भैरव सिंह मुझे मार ही देगा," - मैं हकलाते हुए बिस्तर के अंदर बड़बड़ाने लगा।
लगभग 5 मिनट बाद भैरव सिंह अंदर कमरे की तरफ आया। मैं चुपचाप बाई करवट में लेट कर सोने का नाटक करने लगा। मेरी कपकपी छूट रही थी और शायद उसने मुझे कांपता हुआ देख भी लिया था। वह अलमारी के नीचे रखा हुआ बड़ा वाला चाकू उठा कर बाहर की तरफ ले गया।
"निश्चित तौर पर भैरव सिंह मुझे उस चाकू से मारने वाला है। आज मेरा मरना तय है। लेकिन अगर भैरव सिंह को मुझे मारना होता तो वह चाकू बाहर क्यों ले जाता? कहीं मैं उस पर बेवजह ही तो शक नहीं कर रहा हूं? क्या पता भैरव सिंह चाकू की धार और तेज करने के लिए उसे बाहर ले गया हो, ताकि मुझे बिल्कुल भी शक ना हो।"
मैं इसी उधेड़बुन में था कि तभी मेरी नजर अलमारी के नीचे रखे हुए छोटे चाकू पर पड़ी। मैं छोटा वाला चाकू उठा बिस्तर के ऊपर कंबल ओढ़ कर फिर से सोने का नाटक करने लगा। 15 मिनट बाद भैरव सिंह वापस अंदर आया। मैंने कंबल ओढ़ा हुआ था। इसलिए मुझे उसकी शक्ल नहीं दिख रही थी। लेकिन मैं महसूस कर पा रहा था कि वह चाकू लेकर मेरी तरफ ही बढ़ रहा था।
मेरे माथे पर पसीना पूरी तरह से जम चुका था। चाकू पकड़ा हुआ मेरा हाथ कांप रहा था। मैंने इससे पहले कभी भी किसी को मारने के लिए चाकू का इस्तेमाल नहीं किया था। लेकिन आज अलग बात थी। जान बचाने के लिए इसके अलावा कोई उपाय नहीं था।
भैरव सिंह धीरे धीरे मेरे पास आ रहा था। अब मैं भी तैयार था। मैंने सोच लिया था कि भैरव सिंह के मुझ पर हमला करने से पहले ही मैं उस पर चाकू से वार कर उसे घायल कर दूंगा। लेकिन क्या मैं वाकई ऐसा कर पाऊंगा? मुझे खुद पर जरा सा भी विश्वास नहीं था।
भैरव सिंह मेरे सिरहाने के पास आया और जैसे ही उसने मेरा कंबल हटाने की कोशिश की, मैंने पूरी ताकत के साथ छोटा चाकू उसके पेट में घुसा दिया।
पिचकारी मारता हुआ खून उसके शरीर से बाहर आया और वह लड़ खड़ा कर नीचे गिर पड़ा। गाड़े लाल रंग का उसका खून किसी नदी की भांति बहता हुआ मेरे बिस्तर के नीचे जा छुपा। मेरी जान में दोबारा जान आई। मुझे न जाने क्यों ख़ुद पर गर्व हो रहा था। मैंने अपनी जान बचा ली थी।
तभी मेरी नज़र उसके हाथों पर गई। आश्चर्य की बात यह थी कि उसके हाथों में कुछ भी नहीं था। मेरे पैरों के नीचे से जमीन खिसक रही थी। मेरे दिल की धड़कन मेरे ही कानों को चुभने लगी थी।
मैं दौड़ता हुआ बाहर कमरे में पहुंचा। मेरे सामने वही बड़ा वाला चाकू और केलों का एक गुच्छा था। शायद वह मेरे लिए केले लाने गया था। लेकिन क्यों? वह बेचारा तो मुझे मारना चाहता था।
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