व्यर्थ

Written By Manu, Fiction Story posted on 26 Feb 2022
उफ़! आज तो बहुत गर्मी है, किसी करवट आराम नहीं मिल रहा। मेरी पुरानी वाली जगह ही ठीक थी। क्या हुआ जो किराने वाला रात भर दुकान की बत्ती जली रखता था। वहाँ थोड़ा आराम तो था अगर कछुआ जला लो तो मच्छर भी नहीं काटते थे।
यहाँ, हलवाई के चबूतरे पे न जाने कितनी चींटियाँ रेंग रही हैं और काटे जा रही है। उस पर से नाली की यह बदबू, उफ़! मेरा तो दम ही घुटा जा रहा है। मैं कल ही सत्तू से कह कर अपनी पुरानी वाली जगह वापस मांग लूँगा, बस आज की रात कट जाए।
समय का अंदाजा भी नहीं हो पा रहा, कुछ नहीं तो आधी रात तो बीत ही गई होगी।
देखूँ कल के क्वाटर में कुछ घूँट दो घूँट बची हो तो शायद नींद आ जाए।
अरे! यह आधी रात को कौन चला जा रहा है? इस मोहल्ले में तो कभी किसी को इतनी रात गए घर से निकलते नहीं देखा। यह तो कोई बच्चा है! हाँ! बच्चा ही लग रहा है। कमबख्त यहाँ इतनी रोशनी भी तो नहीं है कि साफ़ दिखाई दे।
“ए कौन है तू और इतनी रात गए घर के बाहर क्या कर रहा है?“
अरे मुझे सुन कर भी अनसुना कर रहा है? जरा उठ कर देखूँ कौन है ये।
इस लड़के को तो मैं जानता हूँ। यह तो यही गली के मोड़ वाले मकान में रहता है। नाम क्या था इसका, मैं भूल रहा हूँ। हाँ याद आया-
“बेली, ओ बेली! इतनी रात को कहाँ जा रहा है। तेरे घर वाले परेशान होंगे।”
यह तो बात ही नहीं सुन रहा। मुझे जाकर इसे रोकना चाहिए, कहाँ गई मेरी चप्पल, यह रही।
“रुक! रुक अभी”
“हाय राम!”
यह क्या था। इतनी जोर से पैर के अंगूठे में घुस गया।
“ए तू रुक वही पर रुक जा।”
उफ़ सही से चला भी नहीं जा रहा, लगता है खून बह रहा है। कुछ बहुत नुकीला अंदर तक घुस गया है। अगर थोड़ी रोशनी होती तो साफ़ दिखाई पड़ता।
“ए लड़के रुक!”
इसका हाथ तो एकदम ठंडा है।
“कहाँ जा रहा है इतनी रात को, जा घर वापस जा।”
अरे! इस जरा से लड़के में इतनी ताकत, मुझे भी खींचे लिए जा रहा है।
“इसे छोड़ दे।”
“हह! कौन बोला।”
“इसे छोड़ दे, इसे जाने दे।”
“कौन बोल रहा है, और तू कैसे जानता है इस लड़के को।”
“यह मेरे संरक्षण में है। इसे छोड़ दे।”
“यह क्या छोड़ दे की रट लगा रखी है। चुपचाप लड़के को जाने दे वरना मैं शोर मचाऊँगा।”
“मंगल, तू क्यों मेरे काम खराब कर रहा है।”
“कोई है, कोई है। देखो यह इस लड़के को लिए जा रहा है। कोई इसे रोको। आह!”
यह पैर का दर्द तो बढ़ता ही जा रहा है। मैं कहाँ इस लड़के के चक्कर में पड़ गया मरता है तो मरने दो कौन स मेरा सगा है।
“तू कौन सा किसी का सगा है। जो इस लड़के को रोके खड़ा है। मेरा काम मत रोको, क्यों अपने प्राण संकट में डाल रहा है।”
“तुम मेरे नाम कैसे जानते हो।” क्यों न मैं इसे बातों में उलझाए रखूँ, हो सकता है थोड़ी देर में सवेरा हो जाए।
“मैं तुम्हारे बारे में सब जानता हूँ।”
“अच्छा यह बात है, लगता है तू भी मेरे गाँव का है। लेकिन वहाँ कोई बच्चा चोर तो नहीं था।”
“मैं तेरे गाँव का नहीं हूँ लेकिन तेरे बारे में सब जानता हूँ। तू वही है न जिसने अपने दोस्त को धक्का मारा था और वो गाड़ी के सामने आ गया था।”
“ह..हाँ, मगर मैंने उसे धक्का नहीं दिया था, वो खुद ही लड़खड़ा गया था, और, और वो बच भी तो गया था।”
“हाँ बच गया था और जीवन भर के लिए अपाहिज भी हो गया।”
“मैंने जान बूझ कर नहीं किया था..”
“वो तो आज भी तुम्हें दोष नहीं देता है, सच्चाई तो सिर्फ तेरा दिल जानता है।”
“तुम कौन हो और इस घटना के बारे में कैसे जानते हो, यह तो बहुत पुरानी बात है।”
“जानता हूँ तुम उस समय दस वर्ष का था।”
“ह..हाँ” – हे भगवान इसे कैसे मालूम है।
“और याद है वह बुढ़िया जो तुझे से खाना मांग रही थी और तूने मना कर दिया था।”
“मेरे पास दो ही रोटी थी अगर उसे एक दे देता तो में क्या खाता और उसके बाद दो दिन तक खाने को नहीं मिला था मुझे।”
“हाँ लेकिन नशा करने के पैसे थे तेरे पास, पूरे दो दिन तू बेहोश पड़ा रहा था।”
“तुम्हें यह सब कैसे मालूम है।”
यह सुबह कब होगी और इस बच्चे के घर वाले कैसे है जिन्हें इसकी फिक्र ही नहीं।
“तो तू इसकी इतनी चिंता क्यों कर रहा है। अपनी खुद के बेटी को तो तू देखने भी नहीं गया आज तक।”
“म..मेरी बेटी।”
“हाँ, जब तू अपनी पत्नी को छोड़ कर गाँव से भाग आया था। तब वह तेरे बच्चे को अपने पेट में पाल रही थी।”
मेरी बेटी भी है।
“अरे निकृष्ट जीव तूने अपने जीवन में किया ही क्या है। जो आज मेरा रास्ता रोके खड़ा है।”
हे भगवान यह कौन है, अब तो मुझे डर लगने लगा है।
“डर क्यों रहा है मैं तुझे तो नहीं पकड़े हूँ, तू ही मेरा रास्ता रोके खड़ा है।”
“आप कौन हो और इस बच्चे को कहाँ ले जा रहे हो।”
“मैं कौन हूँ। यह जान कर तू क्या करेगा। स्वार्थी प्राणी मेरे रास्ते से हट जा।”
“नहीं मैं तुम्हें नहीं जाने दूंगा, चाहो तो मुझे लिए जाओ, इस बच्चे को छोड़ दो।”
“मैं तेरा क्या करूंगा। जा अपने उसी दलदल में वापस लौट जा जिसे तू जीवन समझता है।”
“आह! मारो मत मुझे।” इसने एक बार मेरी छाती पर मारा और मैं अधमरा हो गया।
“ठीक है मैं इस बच्चे को छोड़ रहा हूँ, मुझे और मत मारना।”
मेरी आँखें बंद हो रही है।
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“मंगलू, उठ देख दिन चढ़ आया।”
“कौन आह मेरे पैर और छाती में कितना दर्द हो रहा है।”
“अबे, तू रात में क्या बड़बड़ा रहा था। देख अगर तू इतना शोर करेगा तो यह लोग हमें यहाँ नहीं सोने देंगे। यह तेरे पैर पर घाव कैसा। चल बढ़िया है कमाई अच्छी होगी।”
“आह, इतना दर्द हो रहा है। सत्तू वो लड़का कहाँ है।”
“कौन लड़का”
“वो बेली”
“अबे चुप रह, तुझे कैसे पता चला।”
“क्या पता चला, क्या हुआ उसे।”
“रात को उसकी मौत हो गई।”
“क्या!”
“हाँ”
मौत हो गई – “हाय मेरा पैर”
“तू कहाँ जा रहा है।”
उसके घर जा के देखता हूँ, फाटक तो खुला हुआ है और भीड़ भी जमा है।
“यार तू कहाँ जा रहा है आज वहाँ से कुछ नहीं मिलने वाला।”
“सत्तू यार मैंने उस लड़के को देखा था।”
“क्या बके जा रहा है। ”
“दोस्त उस बच्चे की उम्र ही क्या थी। उसने तो जीवन देखा भी नहीं था अभी ”
“रहा होगा 10-11 साल का, और यह सब तो ऊपर वाले की मर्जी से चलता है। चल हम लोग आज बड़ी मंडी के सामने बैठेंगे और वह लोग अच्छी भीख देते है। रात का इंतजाम हो जाएगा।”
“पर यार सिर्फ दस साल का बच्चा।”
“तुझे क्या करना है तेरा कौन सा सगा था।”
उसको को सिर्फ दस साल, और मुझे। मैंने तो अपना जीवन व्यर्थ कर दिया।
“बहुत जी ली ऐसी ज़िंदगी, मैं अपने गाँव जा रहा हूँ।”
“गाँव यूं अचानक”
“हाँ, में अपनी बेटी के पास जा रहा हूँ।”
----------समाप्त----------